डरना मना है

कोरोना के चलते वैश्विक बाजारों में भारी गिरावट देखने को मिली है। भारतीय बाजार भी इससे अछूते नहीं रहे। बाजारों में इस गिरावट का भरपूर फायदा चीनी निवेशकों ने उठाया है। चीन के केंद्रीय बैंक पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने हाल ही में एचडीएफसी में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाकर 1% कर लिया है। इस निवेश की सूचना से भारतीय नियामकों के कान खड़े हो गए। इसे देखते हुए भारत सरकार ने एफडीआई नियमों में अहम बदलाव किए। जिससे उन देशों की कंपनियों को भारत में निवेश करने से पहले भारत सरकार की अनुमति लेनी पड़ेगी जिनकी सीमा भारत से लगती है। सेबी ने ऐसे 11 देशों की पहचान की है जहां से चीनी निवेश अप्रत्यक्ष रूप से भारत आ सकता है। अब उन देशों से भारत में अगर बड़ा निवेश आता है तो पता लगाया जाएगा कि क्या उसमें सीधे या परोक्ष रूप से चीनी निवेशक शामिल है?

ऐसे हड़बड़ाहट में लिए गए कदम छोटी अवधि में जरूर रक्षात्मक दिखाई देते हैं। परंतु लंबी अवधि में भी यह समझदारी होगी, ऐसा कहना जल्दबाज़ी होगा। सरकार के इस कदम से भारतीय कंपनियां ज्यादा सुरक्षित होंगी लेकिन ऐसे स्टार्टअप्स जिसमें चीनी कंपनियों ने बड़ा निवेश किया है, मुश्किल में आ गए हैं क्योंकि अब उन्हे अतिरिक्त पूंजी के लिए कोई और रास्ता देखना होगा। पहले अमेरिकी निवेशक नए भारतीय उद्यमों में सबसे ज्यादा पैसे लगाते थे। लेकिन पिछले 2 साल से यह जगह चीन ने हासिल कर ली है। प्रत्यक्ष विदेशी मुद्रा निवेश (एफडीआई) को भारतीय जनमानस शुरू से ही ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी विदेशी कंपनियों के सामने समर्पण के रूप में देखता है। हालांकि बहुत सी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं ने विदेशी मुद्रा निवेश का न केवल स्वागत किया बल्कि उससे प्रगति की है।

हम गरीबी को गले लगाए बैठे रहे जबकि हांगकांग और सिंगापुर उनके भूतपूर्व राजनीतिक मालिक ब्रिटेन से भी कहीं आगे निकल गए। तो क्या हम भारतीय कंपनियों को औने पौने दामों में विदेशी निवेशकों के हाथ बिकते हुए देखते रहें ? – नहीं, विदेशी निवेशक निश्चित ही एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंक में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाते बढ़ाते उनके सबसे बड़े शेयर धारक बन गए हैं। परंतु इसका कहीं भी यह अर्थ नहीं है कि या तो उन्होंने इन बैंकों का अधिग्रहण कर लिया है या फिर भारत का अधिग्रहण कर लिया है। सभी विश्व की नामी-गिरामी बड़ी कंपनियां जैसे माइक्रोसॉफ्ट, अमेज़न, हिंदुस्तान लीवर, नेस्ले, जिलेट, सुज़ुकी, हुंडई, फोर्ड आदि आज किसी न किसी रूप में भारत में अपनी पहुँच बना चुके हैं। ये कंपनियाँ बहुत से घरेलू उत्पाद बनाती हैं और कारों के मामले में तो उनका लगभग पूर्ण एकाधिकार हो गया है। तो क्या इसे भारतीय संप्रभुता में दखलंदाजी के रूप में देखा जाए?


हम सभी इस बात से सहमत होंगे कि कोविड 19 के कारण पैदा हुई इस आर्थिक मंदी से निपटने के लिए सभी विकासशील देश अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) या विश्व (वर्ल्ड) बैंक से बड़े-बड़े नए ऋण या पुराने ऋणों की माफी चाह रहे होंगे। आकस्मिक रूप से आई इस वैश्विक महामारी से बचने के लिए ऐसा नितांत रूप से जरूरी है।

भारत भी आज आर्थिक संकट से गुजर रहा है और हमारे लिए किसी भी स्रोत से आए हुए आर्थिक मदद का स्वागत करने के अलावा और कोई उपचार बचा नहीं है। जहां तक टूटते हुए भारतीय बाजारों में चीनी निवेश का सवाल है तो क्या हमने यह शेयर बाजार में नहीं सुना है कि गिरते हुए चाकू को थामने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

क्या बाजार में गिरते हुए भाव अमेरिकी या यूरोपीय निवेशकों को पता नहीं चल रहे हैं? या फिर हम यह मान बैठे हैं कि चीनी निवेशक ही इसे दूसरों से बेहतर समझते हैं। अगर बाजार में भाव इतने ही टूट गए हैं तो हम भारतीय ही स्वयं अपनी कंपनियों में अपना निवेश क्यों नहीं बढ़ा लेते हैं? यदि हम चीनी निवेश से इतने ही ज्यादा चिंतित हैं तो क्यों ना हम कुछ विशेष रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कंपनियों की एक लिस्ट बनाएं और किसी विदेशी कंपनी या सरकार द्वारा उनके अधिग्रहण को पूर्ण प्रतिबंधित करें।

पिछले एक दशक में चीन ना केवल तकनीकी रूप से विश्व स्तर का बन गया है बल्कि वित्त और वाणिज्य में भी सबसे अग्रणी देशों में गिना जाने लगा है। ऐसे में चीन द्वारा किसी एक या दो कंपनियों के अधिग्रहण हो भी जाएं तो उसमें कोई बहुत बड़ा नुकसान दिखाई नहीं देता।


दीपक स्वामी, मुख्य प्रबन्धक (प्रशिक्षण), एसबीआईएलडी अजमेर

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